सीखा ( लोपामुद्रा)
तरकीब को कर शरीख़ ज़िन्दगी जीती जाती हूँ,
"सीखा" नाम से रूबरू हुए, सबक सीखाती जाती हूँ।
अबरार-ए-दानिश को संग लेकर कायनात चाहती हूँ,
अपने क़दमों को रफ़्ता-रफ़्ता किस्मत संग चलना चाहती हूँ।
तहजीब-ए-जीस्त सीखाया है सबने, सुनती जाती हूँ,
ख़ुद को तवज्जो दिए, अब नज़्म-ए-खास सी सजती हूँ।
आफ़ताब को आईना दिखाने की हिम्मत भी रखती हूँ,
ख़ामोश निगाहों से अब्र को ताक ख़ुद बारिश बन जाती हूँ।
शब-ए-फ़िराक में भी बहारों के ख़्वाब से नशीमन होती हूँ,
ख़ुद ही बन ख़ुद की माशुका, आजमाइश ख़ुद की करती हूँ।
ख़्वाबगाह से ख़्वाब चूरा कर रंगों से सराबोर करती हूँ,
इज़्ज़त अफ़जाई के हक़ को हमेशा तवज्जो देती रहती हूँ।
नेमत-ए-जीस्त समझकर हमदर्द ख़ुद को बनाती हूँ,
तूफ़ान सा उफ़ान बनती, सागर की ठंडक भी बनती हूँ।
तकल्लुफ-ए-ज़िन्दगी को कर दर किनार चलती हूँ,
सुर्ख लबों पर मुस्कान रख ज़िन्दगी की लुफ़्त उठाती हूँ।
"सीखा" संग फलक तक का सफ़र अकेले तय करती हूँ,
कारवां गुज़रे ना कभी, हौसला अफजाई ख़ुद की करती हूँ।
बज़्म-ए-महफ़िल में बात होती है हमेशा एहसासों की,
ज़िन्दगी संग ग़ुफ़्तगु कर दानिश -ए-रोशनदान बनना चाहती हूँ।
No comments:
Post a Comment